Thursday, March 21, 2013

इस्लाम और महिला अधिकार

इस्लाम और महिला अधिकार

एक अहम चीज इस्लाम के दिये हुये मानव-अधिकारों में यह है। कि औरत की अस्मत और इज्ज्ात कर हाल मे आदर के योग्य हैं, चाहे औरत अपनी कौम की हो, या दुश्मन कौम की, जंगल बियाबान मे मिले या फतह किये हुये शहर में, हमारी अपने मजहब की हो या दूसरे मजहब से उसका ताल्लुक हो, या उसका कोर्इ भी मजहब हो, मुसलमान किसी हाल में भी उस पर हाथ नही डाल सकता। उसके लिये जिना को हर हाल में हराम किया गया है
ं चाहे यह कुकर्म किसी भी औरत से किया जाये। कुरआन के शब्द हैं-’’ जिना के करीब भी न फटको। (17:32) और उसके साथ ही यह भी किया गया हैं कि इस काम की सजा मुकर्रर कर दी गर्इ। यह हुक्म किसी शर्त के साथ बन्धा हुआ नही हैं। औरत की अस्मत और इज्ज्ात पर हाथ डालना हर हालत में मना हैं और अगर कोर्इ मुसलमान इस काम को करता हैं तो वह इस की सजा से नही बच सकता, चाहे दुनिया मे सजा पाये या आखिरत में। औरत के सतीत्व के आदर का यह तसव्वुर इस्लाम के सिवा कहीं नही पाया जाता। पाश्चात्य फौजो को तो अपने मुल्क में भी ‘‘ काम वासना की पूर्ति’’ के लिए खुद अपनी कौम की बेटियां चाहिए होती हैं । और गैर कौम के देश पर उनका कब्जा हो जाये तो उस देश की औरतों की जो दुर्गत होती हैं, वह किसी से छुपी हुर्इ नही हैं। लेकिन मुसलमानों की तारीख-व्यक्तिगत इंसानी गलतियों को छोड़कर-इस से खाली रही हैं कि किसी देश को फतह करने के बाद उनकी फौजें हर तरफ आम बदकारी करती फिरी हों, या उनके अपने देश में हुकूमत ने उनके लिये बदकारीयां करने का इन्तिजाम कियाहो। यह भी एक बड़ी नेमत है जो मानव-जाति को इस्लाम की वजह से हासिल हुर्इ हैं।

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